
Supreme Court India
SC News: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, एक विवाहित बेटी को माता-पिता पर निर्भर नहीं माना जा सकता।
सड़क हादसे में मां की मौत के बाद मुआवजे पर हक जताने का मामला
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने उस मामले में यह फैसला सुनाया जिसमें मृतक (मां) की मृत्यु राजस्थान रोडवेज की एक बस द्वारा की गई एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी। यह दुर्घटना बस के लापरवाही से अचानक मोड़ लेने के कारण हुई, जिससे मृतका का दोपहिया वाहन कुचला गया। मृतक की विवाहित बेटी और उसकी वृद्ध मां द्वारा ₹54.3 लाख का मुआवज़ा दावा किया गया था। यह याचिका एक सड़क दुर्घटना में मृत अपनी मां के आश्रित के रूप में मुआवज़े की मांग को लेकर दाखिल की गई थी। शीर्ष कोर्ट ने विवाहित बेटी की याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने कहा, “एक बार जब बेटी का विवाह हो जाता है, तो यह तार्किक रूप से अनुमान लगाया जाता है कि अब उसके वैवाहिक घर में अधिकार हैं और उसे अपने पति या उसके परिवार से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है, जब तक कि इसके विपरीत कोई साक्ष्य प्रस्तुत न किया जाए।
आर्थिक रूप से निर्भर होने पर ही कानूनी प्रतिनिधि मानना संभव
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि एक विवाहित बेटी को मृतक की कानूनी प्रतिनिधि माना जा सकता है, लेकिन जब तक वह यह सिद्ध न कर दे कि वह मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी, तब तक उसे “loss of dependency” के तहत मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने इस निष्कर्ष के लिए Manjuri Bera & Anr. बनाम Oriental Insurance Co. Ltd. & Anr., (2007) 10 SCC 634 के निर्णय का हवाला दिया। प्रारंभ में मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) ने अपीलकर्ता संख्या 1/बेटी को मुआवज़ा प्रदान किया था, परंतु उच्च न्यायालय ने अपील पर विचार करते हुए यह कहते हुए बेटी को दिया गया मुआवज़ा घटा दिया कि उसकी निर्भरता सिद्ध नहीं हुई थी, और अपीलकर्ता संख्या 2/मृतका की मां को दिया गया मुआवज़ा पूरी तरह निरस्त कर दिया।
उच्च न्यायालय के निर्णय को मृतका की बेटी व मां ने दी चुनौती
उच्च न्यायालय के इस निर्णय को चुनौती देते हुए मृतका की बेटी और मां सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं। न्यायमूर्ति धूलिया द्वारा लिखित निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय द्वारा विवाहित बेटी को दिया गया मुआवज़ा घटाने के निर्णय को तो बरकरार रखा, यह मानते हुए कि वह अब मृतक की आय पर निर्भर नहीं थी, परंतु उस हिस्से को रद्द कर दिया जिसमें उच्च न्यायालय ने मृतका की मां को दिए गए मुआवज़े को भी निरस्त कर दिया था। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि अपीलकर्ता संख्या 1 को दिए गए मुआवज़े के संबंध में उच्च न्यायालय के निर्णय को बनाए रखते हैं, क्योंकि हमें उसमें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं लगती। परंतु अपीलकर्ता संख्या 2 का दावा खारिज करने वाले आदेश को हम रद्द करते हैं, क्योंकि हमारी विचार में इसमें हस्तक्षेप warranted है। हमने मुआवज़े की राशि बढ़ाकर ₹19,22,356/- करने के लिए कारण दिए हैं। अतः ₹19,22,356/- की राशि अपीलकर्ता संख्या 2 को मुआवज़े के रूप में दी जाए।
कोर्ट ने कहा
हमारे विचार में उच्च न्यायालय ने सही रूप से Manjuri Bera मामले का हवाला देते हुए यह माना कि अपीलकर्ता संख्या 1, मृतक की कानूनी प्रतिनिधि होने के नाते केवल मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 140 के अंतर्गत मिलने वाले मुआवज़े की हकदार हैं, क्योंकि इस धारा के तहत दायित्व आश्रयता की अनुपस्थिति में भी समाप्त नहीं होता है।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा
उच्च न्यायालय ने जिस प्रकार ट्रिब्यूनल द्वारा मृतका की मां (अपीलकर्ता संख्या 2) को दिए गए मुआवज़े को रद्द किया, वह त्रुटिपूर्ण था। अपीलकर्ता संख्या 2 की उम्र दुर्घटना के समय लगभग 70 वर्ष थी, और वह मृतका के साथ रहती थीं, जिनकी कोई स्वतंत्र आय नहीं थी। इस तथ्य के विपरीत कोई साक्ष्य रिकॉर्ड पर नहीं है।
कोर्ट ने यह भी कहा
एक बच्चे का अपने माता-पिता की वृद्धावस्था में भरण-पोषण करने का कर्तव्य उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि एक माता-पिता का अपने अल्पवयस्क बच्चे का पालन-पोषण करना। मृतका, जो एकमात्र आजीविका अर्जित करने वाली थीं, यह कर्तव्य निभा रही थीं, जिससे अपीलकर्ता संख्या 2 की आश्रयता और अधिक पुष्ट होती है। इसलिए मृतका की असामयिक मृत्यु अपीलकर्ता संख्या 2 के लिए कठिनाइयों का कारण बन सकती है। भले ही यह मान लिया जाए कि दुर्घटना के समय वे आश्रित नहीं थीं, परंतु भविष्य में आश्रित होने की संभावना को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।