
Supreme Court View
SC News: सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1981 के एक हत्या मामले में उम्रकैद की सजा पाए दो दोषियों को बरी करते हुए कहा कि किसी भी अदालत को ‘लोअर कोर्ट’ कहना संविधान की भावना के खिलाफ है।
ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को लोअर कोर्ट रिकॉर्ड न कहें
जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने यह टिप्पणी की। जस्टिस ओका ने फैसले में लिखा, हम 8 फरवरी 2024 के आदेश में दिए गए निर्देश को दोहराते हैं कि ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को ‘लोअर कोर्ट रिकॉर्ड’ न कहा जाए। किसी भी अदालत को ‘लोअर कोर्ट’ कहना हमारे संविधान की भावना के खिलाफ है। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने इस निर्देश को लागू करने के लिए फरवरी 2023 में एक सर्कुलर भी जारी किया था। हाई कोर्ट्स को इस निर्देश पर ध्यान देना चाहिए और इसे लागू करना चाहिए।
यह है मामले की पृष्ठभूमि
यह फैसला दो दोषियों की अपील पर आया, जिन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट के अक्टूबर 2018 के फैसले को चुनौती दी थी। हाई कोर्ट ने 1981 के हत्या मामले में उनकी सजा को बरकरार रखा था। मई 1981 में पुलिस ने तीन आरोपियों के खिलाफ एक व्यक्ति की हत्या और एक महिला को घायल करने के आरोप में एफआईआर दर्ज की थी। अक्टूबर 1982 में ट्रायल कोर्ट ने दो आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई, जबकि तीसरे को बरी कर दिया गया।
निष्पक्ष जांच नहीं हुई
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पुलिस ने निष्पक्ष जांच नहीं की। कुछ गवाहों के हलफनामों जैसे अहम सबूतों को दबा दिया गया। कोर्ट ने कहा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है। पुलिस की भी जिम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष जांच करे। यह निष्पक्षता का अहम पहलू है। जांच का उद्देश्य यह होना चाहिए कि असली दोषियों को सजा मिले और निर्दोष को नहीं।
गवाह की गवाही पर ही दोष सिद्ध करना सुरक्षित नहीं
कोर्ट ने कहा कि केवल एक गवाह की गवाही के आधार पर दोष सिद्ध करना सुरक्षित नहीं है। “गवाहों के हलफनामों के आधार पर आगे की जांच न करना मामले की जड़ से जुड़ा मुद्दा है। हथियारों की बरामदगी न होना भी इन परिस्थितियों में अहम है। इस आधार पर कोर्ट ने दोनों दोषियों को बरी कर दिया।