
Supreme court
SC News: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ऑनर किलिंग (सम्मान के नाम पर हत्या) के मामलों में कठोर सजा दी जानी चाहिए।
मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला रहा बरकरार
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने तमिलनाडु में जुलाई 2003 में एक युवा जोड़े की “नृशंस हत्या” के मामले में 11 दोषियों की सजा को बरकरार रखा। मद्रास उच्च न्यायालय के जून 2022 के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। इस घटना में दो पुलिस अधिकारी की सजा को बरकरार रखा गया।
जहर देकर गांव वालों ने मार डाला था
पीठ ने कहा कि पीड़ित मुरुगेशन और कन्नगी, जो अपनी शुरुआती बीसवीं उम्र के थे, को बड़ी संख्या में गांववालों के सामने जहर देकर मार डाला गया था। इस “भीषण कृत्य” के मुख्य साजिशकर्ता और अपराधी खुद महिला के पिता और भाई थे। शीर्ष अदालत ने कहा कि हत्या का कारण यह था कि कन्नगी “वान्नियार” समुदाय से थीं, जबकि मुरुगेशन कड्डलोर जिले के उसी गांव के एक दलित थे। यह जोड़ा मई 2003 में गुप्त रूप से विवाह कर चुका था। मुरुगेशन के परिवार की ओर से वकील प्रियदर्शिनी राहुल पेश हुईं।
ऑनर किलिंग जैसे अपराधों में कठोर सजा होनी चाहिए
पीठ ने अपने 73 पृष्ठों के फैसले में कहा, “इस अपराध की जड़ में भारत में गहरे जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था है, और विडंबना यह है कि इस सबसे अपमानजनक कृत्य को ‘ऑनर किलिंग’ कहा जाता है। अपराध राज्य के खिलाफ एक कृत्य होता है। लेकिन जिस जघन्य और घृणित अपराध से हम अभी निपटे हैं, वह हमारी गहरी जातिगत संरचना की बदसूरत सच्चाई को दर्शाता है। ऑनर किलिंग जैसे अपराधों में कठोर सजा दी जानी चाहिए।
पुलिस अधिकारी ने ड्यूटी में कोताही बरती
पुलिस अधिकारियों की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए पीठ ने कहा कि दोनों पुलिस अधिकारियों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 217 और अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध किया, क्योंकि उन्होंने अपनी ड्यूटी निभाने में कोताही की और अपराधियों को बचाने के इरादे से एफआईआर दर्ज नहीं की। (धारा 217 के तहत कानून के निर्देशों की अवहेलना कर किसी व्यक्ति को सजा से या संपत्ति को जब्ती से बचाने का प्रयास करने वाले लोक सेवक को दंडित किया जाता है।)
टालमटोल की नीतियों के कारण मुकदमा लंबा चला
फैसले में कहा गया, “एफआईआर दर्ज कराने से लेकर मुकदमे के निर्णय तक हुई अत्यधिक देरी, अभियोजन पक्ष की गंभीर अक्षमता और बचाव पक्ष द्वारा अपनाई गई टालमटोल रणनीतियों को दर्शाती है, जिससे मुकदमा अत्यधिक लंबा खिंच गया। पीठ ने कहा, यह परिघटना नई नहीं है, बल्कि आज हमारे आपराधिक न्यायालयों में यह एक आम बात बन गई है, जो अभियोजन पक्ष के लिए निराशा का कारण है। “लेकिन फिर भी एक ट्रायल कोर्ट का उद्देश्य सच्चाई तक पहुंचना है। अदालत के समक्ष जो भी साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, उनकी पूरी तरह जांच, परीक्षण और आवश्यक होने पर पुष्टि करनी चाहिए, तभी अंतिम निर्णय लिया जाना चाहिए।
गवाहों के मुकरने से मुकदे में देरी हो गई
पीठ ने कहा कि गवाहों के hostile हो जाने का एक मुख्य कारण मुकदमे में होने वाली अत्यधिक देरी भी है। “यह हमारे देश की एक दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन सच्ची स्थिति है। इस मामले में निचली अदालत को निर्णय सुनाने में 18 वर्ष लगे। अदालत ने कहा कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत पर्याप्त साक्ष्य थे, जो आरोपियों के अपराध को संदेह से परे सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थे। पीठ ने आदेश दिया कि जो आरोपी जमानत पर हैं, वे दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करें और अपनी शेष सजा पूरी करें।