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Judge’s Row- 16: दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन और वर्तमान में इलाहाबाद हाईकोर्ट में कार्यरत न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर गंभीर आरोप लगे हैं।
पूर्व CJI जस्टिस संजीव खन्ना ने महाभियोग की सफारिश की
एक उच्चस्तरीय जांच समिति ने अपनी 64 पन्नों की रिपोर्ट में कहा है कि वर्मा और उनके परिवार का उनके सरकारी आवास के स्टोररूम पर ‘गुप्त या सक्रिय नियंत्रण’ था, जहां 14 मार्च की रात को लगी आग के बाद अधजली नकदी बरामद हुई थी। यह घटना दिल्ली के लुटियन जोन स्थित 30 तुगलक क्रेसेंट बंगले में घटी थी। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय समिति— जिसमें हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल थीं— ने 10 दिन की जांच के दौरान 55 गवाहों के बयान दर्ज किए और घटनास्थल का दौरा भी किया। रिपोर्ट में कहा गया, यह समिति मानती है कि जली हुई नकदी 30 तुगलक क्रेसेंट स्थित जज वर्मा के आधिकारिक आवास के स्टोररूम से मिली। इस स्टोररूम तक पहुंच वर्मा और उनके परिवार के नियंत्रण में थी। 15 मार्च की सुबह इस नकदी को हटाया गया। पूर्व CJI जस्टिस संजीव खन्ना ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की सिफारिश की है।
गवाहों के बयान से खुलासा: ‘रात में नकदी हटाई गई’
समिति ने पाया कि आग लगने के तुरंत बाद दमकलकर्मियों और पुलिसकर्मियों ने स्टोररूम में ₹500 के जले हुए नोटों के ढेर देखे। एक गवाह ने बताया, “इतना कैश पहली बार देखा था, मैं स्तब्ध रह गया।” समिति ने इस दौरान तीन मुख्य प्रश्न उठाए हैं। इनमें स्टोररूम में इतनी बड़ी नकदी कैसे पहुंची?, इसकी स्रोत क्या थी? और नकदी को 15 मार्च की सुबह किसने हटाया?।
जस्टिस वर्मा की सफाई: ‘कैश मेरा नहीं, स्टोर आम इस्तेमाल में था’
जस्टिस वर्मा ने समिति के सामने कहा कि स्टोररूम उनके निजी आवास का हिस्सा नहीं था और वहां पुराना फर्नीचर, कारपेट आदि रखे जाते थे। उन्होंने CCTV निगरानी और सुरक्षा गार्ड की मौजूदगी का हवाला दिया और कहा कि उनके रहते नकदी वहां नहीं रखी जा सकती थी। उन्होंने यह भी कहा कि आग लगने के वक्त वह दिल्ली में मौजूद नहीं थे और घर में सिर्फ उनकी बेटी और वृद्ध मां थीं। उन्होंने CCTV फुटेज गायब होने पर सवाल उठाया और इसे जांच में उनके पक्ष के लिए नुकसानदायक बताया। जस्टिस वर्मा ने अपनी न्यायिक सेवा के 10 वर्षों में कभी किसी तरह की शिकायत नहीं होने का हवाला देते हुए कहा कि उनकी छवि हमेशा निष्कलंक रही है। उन्होंने पूरे प्रकरण की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाए और मांग की कि आरोपों की जांच के साथ-साथ उनके समग्र न्यायिक आचरण और बार की नजरों में उनकी प्रतिष्ठा की भी समीक्षा की जाए। उन्होंने कहा, “मेरे खिलाफ पहले कभी कोई आरोप नहीं लगा। मेरी ईमानदारी और कार्यशैली पर कभी संदेह नहीं किया गया। इसलिए मेरी न्यायिक छवि की भी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।”
समिति ने नहीं मानी दलीलें, कहा- ‘रक्षा में विरोधाभास’
समिति ने वर्मा की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि उन्होंने CCTV डेटा को संरक्षित रखने का कोई प्रयास नहीं किया। रिपोर्ट में कहा गया कि घटनास्थल पर लगी एक जिम वॉल कैमरा 25 मार्च तक काम कर रहा था, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि निगरानी संभव थी। फायर डिपार्टमेंट के एक अफसर द्वारा रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो भी समिति के पास है, जिसमें स्टोररूम के अंदर जली हुई नकदी साफ दिखाई दे रही है। यह वीडियो रात 11:59 बजे का है।
न्यायिक मूल्यों का उल्लंघन, जनता का भरोसा टूटा: समिति
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “न्यायपालिका का अस्तित्व जनता के विश्वास पर टिका होता है। जब उच्च न्यायपालिका के किसी सदस्य पर ऐसी गंभीर अनियमितता के प्रमाण मिलें, तो यह विश्वास हिल जाता है।” रिपोर्ट में 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत “Restatement of Values of Judicial Life” का हवाला देते हुए कहा गया कि जजों के लिए ईमानदारी की कसौटी आम सरकारी अफसरों से कहीं अधिक सख्त होती है।
न्यायिक इतिहास में एक दुर्लभ घटना
रिपोर्ट में कहा गया कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ सीधे अपराध का आरोप भले नहीं लगाया गया हो, लेकिन जो साक्ष्य सामने आए हैं, वे उनके पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पर्याप्त हैं। रिपोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि जब उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजने का आदेश मिला, तो उन्होंने बिना किसी सवाल या आपत्ति के तबादला स्वीकार कर लिया—जो कि एक ‘साफ-सुथरे रिकॉर्ड’ वाले जज से अप्रत्याशित व्यवहार है।
महाभियोग की सिफारिश, न्यायपालिका में जवाबदेही की मांग तेज
समिति की रिपोर्ट सामने आने के बाद न्यायिक हलकों में पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग फिर तेज हो गई है। यह मामला न केवल एक वरिष्ठ न्यायाधीश के आचरण पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रखने की अनिवार्यता को भी उजागर करता है।
बेटी की गवाही पर भी सवाल
जांच समिति ने जस्टिस वर्मा की बेटी की गवाही पर भी सवाल उठाए, जो घटना के समय घर पर मौजूद थीं। रिपोर्ट में लिखा गया, “उनकी बेटी आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी युवती हैं, जिन्हें हॉस्टल जीवन और कार्य अनुभव है। उनका यह कहना कि वह पूरी तरह घबरा गई थीं, परिस्थितियों से मेल नहीं खाता।”
CCTV का हवाला देकर बचाव, समिति ने खारिज किया
जस्टिस वर्मा ने अपने बचाव में कहा कि स्टोररूम पर CCTV निगरानी थी और सुरक्षा कर्मियों का नियंत्रण था, जिससे वहां नकदी रखना असंभव था। उन्होंने यह भी दावा किया कि वह दिल्ली में मौजूद नहीं थे और घर पर केवल उनकी बेटी और मां थीं। हालांकि, समिति ने उनके इन दावों को खारिज कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि यदि वर्मा चाहते, तो CCTV फुटेज को सुरक्षित रख सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। एक कैमरा 25 मार्च तक चालू पाया गया, जो स्टोररूम के प्रवेश द्वार को कवर करता था। एक दमकल अधिकारी द्वारा रिकॉर्ड किए गए वीडियो में भी जली हुई नकदी दिखी, जिससे यह प्रमाणित होता है कि स्टोररूम में घटना के समय नकदी मौजूद थी।
55 गवाहों के बयान, खुद वर्मा की गवाही ने खोले कई परतें
रिपोर्ट में कहा गया कि समिति ने 55 गवाहों के बयान लिए, जिनमें खुद जस्टिस वर्मा का बयान भी शामिल था। बयान और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों से यह संकेत मिला कि पूरे मामले में कई चूक और संदिग्ध निर्णय हुए हैं। हालांकि समिति ने वर्मा को प्रत्यक्ष रूप से दोषी नहीं ठहराया, लेकिन यह जरूर कहा कि उनके आचरण में इतने गंभीर सवाल हैं कि उनके खिलाफ बर्खास्तगी की कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए। रिपोर्ट ने इसे भारतीय न्यायिक इतिहास में एक “दुर्लभ और गंभीर” स्थिति बताया।
न्यायपालिका की साख पर सवाल, समिति ने कड़ी टिप्पणी की
समिति ने कहा, “1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गए ‘न्यायिक जीवन मूल्यों’ के अनुसार एक जज से सर्वोच्च ईमानदारी और नैतिकता की अपेक्षा की जाती है। न्यायिक पद की नींव जनता के विश्वास पर टिकी होती है और किसी भी तरह की कमी उस विश्वास को नुकसान पहुंचाती है।” समिति ने आगे कहा, “जस्टिस वर्मा द्वारा बिना आपत्ति के इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरण स्वीकार करना भी असामान्य व्यवहार था। आमतौर पर कोई भी साफ-सुथरे रिकॉर्ड वाला जज इस पर स्पष्टीकरण मांगता।” SC पैनल ने न्यायिक मूल्यों पर जताई चिंता, कहा — ‘जजों के आचरण का मापदंड जनता का विश्वास होना चाहिए।’ समिति ने 7 मई 1997 को सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट बैठक में पारित “Restatement of Values of Judicial Life” का संदर्भ देते हुए कहा कि ये मूल्य आज भी न्यायपालिका की नींव हैं और इनसे कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
जजों के आचरण के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गए 13 न्यायिक मूल्य
(1) न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए। जज का आचरण जनता के विश्वास को मज़बूत करे, ऐसा होना आवश्यक है।
(2) जज किसी क्लब, संस्था या संगठन के चुनाव नहीं लड़ सकते और ना ही पद धारण कर सकते, जब तक वह संस्था विधि से जुड़ी न हो।
(3) वकीलों से, विशेष रूप से उन्हीं अदालतों में प्रैक्टिस करने वालों से, करीबी संबंध बनाने से बचना चाहिए।
(4) जज को अपने परिवार के किसी सदस्य (पति/पत्नी, पुत्र/पुत्री, बहू/दामाद आदि) को न तो अपने समक्ष पेश होने देना चाहिए और न ही किसी ऐसे मामले में जुड़ाव रखने देना चाहिए, जिसे वे सुनने वाले हों।
(5) जज के निवास स्थान का उपयोग उनके परिवार के वकील सदस्य को पेशेवर कार्य के लिए नहीं करने देना चाहिए।
(6) जज का आचरण उनके पद की गरिमा के अनुकूल होना चाहिए — अर्थात एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखें।
(7) जज को ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं करनी चाहिए, जिनमें उनके किसी रिश्तेदार या मित्र की सीधी भागीदारी हो।
(8) जज को किसी राजनीतिक मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से मत नहीं देना चाहिए और ना ही ऐसे विषयों पर टिप्पणी करनी चाहिए, जो न्यायिक सुनवाई के दायरे में आने वाले हों।
(9) जज को अपने फैसलों को खुद बोलने देना चाहिए — मीडिया में इंटरव्यू या टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
(10) जज को उपहार या मेहमाननवाज़ी केवल अपने परिवार, घनिष्ठ मित्रों या संबंधियों से ही स्वीकार करनी चाहिए।
(11) यदि किसी कंपनी में उनके शेयर हों और वह मामला उनके समक्ष आए, तो उन्हें पहले हितों का खुलासा करना चाहिए।
(12) जज को शेयर बाजार या इस प्रकार के निवेशों में सट्टेबाज़ी नहीं करनी चाहिए।
(13) जज को किसी व्यापार या व्यवसाय में सीधे या परोक्ष रूप से शामिल नहीं होना चाहिए — कानूनी पुस्तक लेखन या शौक संबंधित गतिविधि को इससे अलग रखा गया है।
समिति की दो टूक – ‘इन मूल्यों का उल्लंघन जनता के विश्वास पर चोट है’
समिति ने टिप्पणी करते हुए कहा कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर देश की न्याय व्यवस्था की नींव टिकी है। इन मूल्यों का पालन करना केवल आंतरिक नीति नहीं, बल्कि नागरिकों के भरोसे का सम्मान करना है। समिति ने कहा, “जब कोई न्यायाधीश इन मूल्यों की अवहेलना करता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की चूक नहीं, बल्कि पूरे न्याय तंत्र की साख पर हमला है। ऐसे मामलों में कठोर और पारदर्शी जांच आवश्यक है।” समिति ने स्पष्ट किया कि जस्टिस यशवंत वर्मा के आचरण की समीक्षा इन्हीं मूल्यों के आलोक में की गई है। जली हुई नकदी के मामले में उनके द्वारा की गई चुप्पी, जांच में उठे संदेह, और जवाबदेही से बचने के प्रयासों को इन्हीं नैतिक मानकों के संदर्भ में जांचा गया है। समिति ने कहा कि चाहे कोई न्यायाधीश दोषी सिद्ध हो या नहीं — यदि उसके आचरण से सार्वजनिक विश्वास डगमगाता है, तो न्यायपालिका के लिए यह अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है।
यह रही अब तक की प्रमुख घटनाएं
दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना ने न्यायपालिका में हलचल मचा दी थी। 14 मार्च की रात हुई इस रहस्यमयी घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच समिति ने वर्मा को ‘कदाचार’ का दोषी ठहराते हुए उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की। जानिए इस पूरे मामले की अब तक की प्रमुख घटनाएं —
🔥 14 मार्च, 2025: रात करीब 11:35 बजे दिल्ली के लुटियंस जोन स्थित 30 तुगलक क्रेसेंट में जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक बंगले में आग लगती है।
🧾 15 मार्च: दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के निर्देश पर कोर्ट अधिकारी घटनास्थल का निरीक्षण करते हैं।
🤝 17 मार्च: दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीके उपाध्याय तत्कालीन सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना से मुलाकात करते हैं।
📷 20 मार्च: दिल्ली हाईकोर्ट सीजे फोटोज और वीडियो सबूत सीजेआई को भेजते हैं। इंग्लिश अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया पहली बार इस खबर को ब्रेक करता है कि जस्टिस वर्मा के आवास से अधजली नकदी मिली है। दिल्ली हाईकोर्ट सीजे जांच की सिफारिश करते हुए सीजेआई को पत्र लिखते हैं।
🕛 21 मार्च: सीजेआई जस्टिस वर्मा से 22 मार्च दोपहर 12 बजे तक लिखित जवाब देने को कहते हैं। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम वर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करने पर विचार करता है।
🧾 22 मार्च: जस्टिस वर्मा आरोपों को खारिज करते हुए जवाब दाखिल करते हैं। सीजेआई संजीव खन्ना तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट अपनी वेबसाइट पर इन-हाउस जांच से संबंधित रिपोर्ट, फोटोज और वीडियो अपलोड करता है।
🏛️ 28 मार्च: जस्टिस वर्मा को उनके मूल न्यायालय इलाहाबाद हाईकोर्ट स्थानांतरित किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट के सीजे से कहता है कि वर्मा को कोई न्यायिक कार्य न सौंपा जाए।
⚖️ 3 मई: सुप्रीम कोर्ट की पैनल रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा को कदाचार का दोषी माना जाता है। समिति उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश करती है।
✉️ 8 मई: तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखते हैं और महाभियोग की सिफारिश करते हैं। वजह—जस्टिस वर्मा ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया।