
Courtroom scene inside the Delhi High Court. AI IMAGE
HC News: दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा, अस्पताल में बीमा दावा (इंश्योरेंस क्लेम) की मंजूरी के दौरान किसी ग्राहक की परेशानियां मुआवजे की मांग के दौरान मानसिक प्रताड़ना का आधार हो सकती हैं, मगर यह अपराध नहीं माना जा सकता है।
एक वकील की याचिका पर सुनवाई
दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश नीना बंसल कृष्णा ने कहा, मरीजों को अंतिम बिलों के निपटान और डिस्चार्ज प्रक्रिया के दौरान अक्सर परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रक्रिया को सरल और सुगम बनाने का मुद्दा संबंधित अधिकारियों द्वारा उठाया जाना चाहिए। वह एक वकील की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस याचिका में उन्होंने सत्र न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उनके शिकायत पर मजिस्ट्रेट अदालत ने एक निजी अस्पताल को भेजे गए समन को बरकरार रखने से इनकार कर दिया गया था।
गलत तरीके से रोककर रखने का आरोप
वर्ष 2013 में वकील ने एक निजी अस्पताल में सर्जरी करवाई थी। वकील ने अस्पताल पर धोखाधड़ी, धन के गबन और गलत तरीके से रोककर रखने का आरोप लगाया था। यह भी आरोप था कि एक निजी बीमा कंपनी की कैशलेस इंश्योरेंस योजना के तहत अधिकृत होने के बावजूद, उनसे सर्जरी से पहले पूरी अनुमानित राशि जमा करवाई गई और बीमा पॉलिसी के तहत पूरा भुगतान होने तक उन्हें अस्पताल से छुट्टी नहीं दी गई।
प्रक्रियागत देरी हुई, कोई आपराधिक मामला सिद्ध नहीं…
17 अप्रैल को पारित फैसले में अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों के बावजूद केवल प्रक्रियागत देरी हुई थी, कोई आपराधिक मामला सिद्ध नहीं होता। इस आधार पर सत्र न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया। अस्पताल की ओर से प्रस्तुत किया गया कि उसने कोई अपराध नहीं किया। क्योंकि प्रारंभिक अधिकरण केवल सीमित राशि और निम्न श्रेणी के कमरे के लिए था। बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (ईरडा) के मानदंडों के अनुसार, अनुमोदित राशि और वास्तविक शुल्क के बीच का अंतर मरीज से छुट्टी से पहले वसूलना आवश्यक था। अदालत ने कहा कि संतुलित राशि का पूर्व में जमा कराना भले ही बोझिल प्रतीत हो, लेकिन इसे पैसे की जबरदस्ती वसूली नहीं कहा जा सकता और न ही इसमें अस्पताल की कोई बेईमानी या धोखाधड़ी की मंशा दिखाई देती है।
बीमा कंपनियों की प्रक्रिया विलंब वाली होती है…
अदालत ने यह स्वीकार किया कि बीमा कंपनियों के साथ बिल निपटाने की प्रक्रिया में मरीजों को उत्पीड़न और मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, और यह प्रक्रिया विलंब वाली होती है। अदालत ने कहा, बीमा कंपनी से स्वीकृति प्राप्त करने की इस प्रणाली को लेकर कई मंचों और न्यायालयों में असंतोष व्यक्त किया गया है। मगर ऐसी स्थिति मानसिक प्रताड़ना के लिए मुआवजे की मांग का आधार हो सकती है, न कि आपराधिक मामला। हालांकि, कई बार न्यायालयों ने यह अनुशंसा की है कि इस विषय पर कोई नियामक नीति होनी चाहिए और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा मरीजों के अधिकारों का एक चार्टर भी प्रस्तावित किया गया है, लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक इस पहलू का कोई ठोस समाधान नहीं निकला है।
यह एक ऐसा विषय है जिसे राज्य सरकार व केंद्र सरकार को बीमा नियामक प्राधिकरण (ईरडा) और दिल्ली व भारत के मेडिकल काउंसिल के साथ मिलकर उठाना चाहिए, ताकि डिस्चार्ज प्रक्रिया और मेडिकल बिलों के निपटान को सरल बनाया जा सके।
——-जस्टिस नीना बंसल कृष्णा, हाई कोर्ट दिल्ली