
A table with laptop passport
Gujrat HC: गुजरात हाईकोर्ट ने कहा, पासपोर्ट प्राधिकरणों के पास यह अधिकार नहीं है कि वे यह तय करें कि आरोपी को विदेश यात्रा की अनुमति है या नहीं। यह अधिकार केवल ट्रायल कोर्ट को है।
हर्ष महेश टन्ना ने दायर की चुनौती याचिका
यह निर्णय हर्ष महेश टन्ना द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में आया, जिन्होंने ट्रायल कोर्ट के आदेशों के बावजूद केवल एक वर्ष के लिए पासपोर्ट के नवीनीकरण को चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति अनिरुद्ध पी. मायी ने कहा, पासपोर्ट प्राधिकरण के पास यह अधिकार नहीं है कि वह यह तय कर सके कि कोई आरोपी विदेश यात्रा कर सकता है या नहीं। यह अधिकार केवल संबंधित ट्रायल कोर्ट के पास है, जो ऐसी अनुमति प्रदान करते समय आवश्यक शर्तें लागू कर सकता है। अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट के 2014 के फैसले नरेंद्र के. अंबवानी बनाम भारत संघ का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि यदि कोर्ट “नियमों के अनुसार” पासपोर्ट नवीनीकरण का आदेश देती है, तो प्राधिकरण को 10 वर्ष की वैधता वाला पासपोर्ट जारी करना चाहिए, जब तक कोर्ट द्वारा कोई विशेष सीमा निर्धारित न की गई हो।
विवाद मामले में विदेश यात्रा से पहले ट्रायल कोर्ट की अनुमति जरूरी
गुजरात हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि GSR अधिसूचना केवल उसी स्थिति में एक वर्ष की वैधता की अनुमति देती है जब कोर्ट कोई अवधि निर्दिष्ट न करे, लेकिन यह कोर्ट को दी गई लंबी अवधि की नवीनीकरण की शक्ति को समाप्त नहीं करती। अंततः, अदालत ने याचिका को स्वीकार करते हुए आदेश दिया कि याचिकाकर्ता का पासपोर्ट 10 वर्षों के लिए नवीनीकृत किया जाए। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि विदेश यात्रा से पहले ट्रायल कोर्ट से अनुमति लेना अनिवार्य रहेगा, जो उपयुक्त शर्तें लागू कर सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा: यहां तक कि यदि अनुमति देने में कोई त्रुटि, चूक या अनियमितता हो, तब भी यह कार्यवाही को अमान्य नहीं बनाती, जब तक कि न्यायालय स्वयं यह नहीं मानता कि ऐसी त्रुटि के कारण न्याय में विफलता हुई है। यदि अनुमति देने वाले प्राधिकारी को प्रारूप आदेश से संतुष्टि है, तो रूप और सामग्री में तालमेल लाने के लिए किए गए छोटे-मोटे बदलाव आदेश को अमान्य नहीं करते।
मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का याचिकाकर्ता ने किया दावा
टन्ना, जिन पर गुजरात जुआ अधिनियम की धारा 4 और 5 के तहत मामला दर्ज है, ने तर्क दिया कि यह एक वर्षीय वैधता उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और पासपोर्ट अधिनियम, 1967 के तहत मनमानी और भेदभावपूर्ण है। याचिकाकर्ता का पासपोर्ट 2023 में समाप्त हो गया, जबकि 2019 से चल रही ट्रायल अब भी लंबित है। ट्रायल कोर्ट से पासपोर्ट के नवीनीकरण की अनुमति मिलने के बावजूद, इसे केवल एक वर्ष के लिए ही नवीनीकृत किया गया, जिससे उनके कार स्टूडियो से जुड़े अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर गंभीर असर पड़ा। अदालत ने यह दावा खारिज कर दिया कि स्वीकृति आदेश देने में प्राधिकारी ने सोच-विचार नहीं किया।
ट्रायल कोर्ट ने दो बार नवीनीकृत का दिया था निर्देश
याचिकाकर्ता के वकील ने 25.08.1993 की GSR अधिसूचना संख्या 570(E) का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोर्ट के आदेश में वैधता अवधि स्पष्ट नहीं है, तो पासपोर्ट प्राधिकरण पासपोर्ट केवल एक वर्ष के लिए जारी कर सकता है। हालांकि, जब ट्रायल कोर्ट नियमों के अनुसार पासपोर्ट नवीनीकरण का निर्देश देता है, तो उसे पासपोर्ट नियम, 1980 के तहत 10 वर्षों के लिए नवीनीकृत किया जाना चाहिए। इस मामले में, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, साणंद ने 18.08.2023 और 20.11.2024 को दो बार यह निर्देश दिया था कि पासपोर्ट नियमों के अनुसार नवीनीकृत किया जाए। इसके बावजूद, प्राधिकरण ने यह कहते हुए केवल एक वर्ष के लिए पासपोर्ट नवीनीकृत किया कि कोर्ट ने कोई अवधि निर्दिष्ट नहीं की।
यह है मामले की की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, एक सेवानिवृत्त लोकसेवक, को 2004 में विशेष अदालत द्वारा ₹500 की रिश्वत लेने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। यह रिश्वत 2000 में भूमि रिकॉर्ड निकालने की प्रक्रिया तेज करने के लिए ली गई थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सितंबर 2024 में इस दोषसिद्धि को बरकरार रखा, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। अपने बचाव में उन्होंने तर्क दिया कि अनुमोदन (sanction) यांत्रिक रूप से और बिना उचित विचार के दिया गया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क खारिज करते हुए कहा कि स्वीकृति आदेश में केवल छोटे-मोटे संशोधन किए गए थे, जो उसकी वैधता को प्रभावित नहीं करते। मनजूर अली खान बनाम भारत संघ, (2015) 2 SCC 33 मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा कि: स्वीकृति का उद्देश्य ईमानदार अधिकारियों को सुरक्षा देना है, न कि भ्रष्टाचार को ढकने का माध्यम बनाना। स्वीकृति का मूल आधार यह है कि स्वीकृति प्राधिकारी को यह संतोष हो कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि स्वीकृति आदेश में किए गए छोटे संपादन आदेश को अमान्य नहीं बनाते, जब तक वे उसकी मूल भावना को नहीं बदलते या न्याय में विफलता का कारण नहीं बनते।