
Delhi High Court
Delhi HC: दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा, अस्पताल दुष्कर्म की नाबालिग पीड़िताओं से पहचान प्रमाण नहीं मांग सकते, खासकर तब जब अदालत ने गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति (एमटीपी) का आदेश दिया हो।
जांच अधिकारी की पहचान ही पर्याप्त
29 मई 2025 को दिए आदेश में न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों को इस बात के लिए संवेदनशील बनाया जाना चाहिए कि यौन उत्पीड़न की शिकार नाबालिग बच्चियों के मामलों में अधिक उत्तरदायी और मानवीय रवैया अपनाया जाए। अदालत ने स्पष्ट किया कि जब जांच अधिकारी किसी यौन उत्पीड़न की पीड़िता को अस्पताल में लेकर आता है और उसके पास आधिकारिक केस फाइल और प्राथमिकी (एफआईआर) होती है, तो अलग से पहचान प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है। न्यायालय ने कहा कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता के नाबालिग होने की स्थिति में, नियमित निदान प्रक्रियाओं में लागू मानक प्रोटोकॉल सख्ती से नहीं लागू किए जा सकते। न्यायालय ने टिप्पणी की, हालांकि सामान्य गर्भावस्था मामलों में पहचान पत्र की आवश्यकता उचित मानी जा सकती है ताकि पीसी एवं पीएनडीटी अधिनियम के प्रावधानों का पालन हो, लेकिन यौन उत्पीड़न की पीड़िता के मामले में, जब जांच अधिकारी के माध्यम से पीड़िता अस्पताल लाई जाती है, तो पहचान पत्र की मांग नहीं की जानी चाहिए।
17 वर्षीय पीड़िता के मामले ने खींचा ध्यान
यह आदेश उस वक्त आया जब 17 वर्षीय नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता ने एमटीपी की मांग को लेकर याचिका दाखिल की। एम्स की एमएलसी रिपोर्ट में 20 सप्ताह की गर्भावस्था बताई गई थी। बावजूद इसके, अस्पताल ने अल्ट्रासाउंड करने से इनकार कर दिया क्योंकि पीड़िता के पास कोई पहचान पत्र नहीं था। अस्पताल ने अस्थि परीक्षण की मांग भी की और कहा कि गर्भधारण 24 सप्ताह से अधिक है, इसलिए अदालत का आदेश जरूरी है। बाद में, अदालत ने एम्स को 5 मई को एमटीपी करने का निर्देश जारी किया।
पीड़िताएं अपने हालात को समझने में असमर्थ और गहरे तनाव में होती हैं: कोर्ट
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि यह मामला इस महत्वपूर्ण तथ्य की याद दिलाता है कि अवांछित गर्भधारण का बोझ झेल रही यौन उत्पीड़न की शिकार को अधिक संवेदनशीलता से संभालने की जरूरत है, क्योंकि अक्सर ऐसी पीड़िताएं अपने हालात को समझने में असमर्थ और गहरे तनाव में होती हैं। अदालत ने आगे कहा कि ऐसे मामलों में हर दिन की देरी पीड़िता के जीवन को और अधिक ख़तरे में डालती है। न्यायालय ने एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता की गर्भपात की याचिका पर सुनवाई करते हुए सभी संबंधित पक्षों को यौन उत्पीड़न के मामलों में स्पष्टता और एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए कई निर्देश जारी किए।
ये निर्देश इस प्रकार हैं:
- जब भी किसी दुष्कर्म/यौन उत्पीड़न की पीड़िता गर्भवती पाई जाती है, संबंधित अस्पताल और डॉक्टर द्वारा बिना किसी देरी के व्यापक चिकित्सा परीक्षण किया जाएगा।
- जांच अधिकारी की यह जिम्मेदारी होगी कि वह पीड़िता की पहचान करे और यह सुनिश्चित करे कि जब पीड़िता को संबंधित डॉक्टर, अस्पताल या मेडिकल बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, तो आवश्यक दस्तावेज, केस फाइल आदि जांच अधिकारी के पास हों।
- जब यौन उत्पीड़न (वयस्क या नाबालिग) की पीड़िता जांच अधिकारी के साथ होती है या अदालत/सीडब्ल्यूसी के आदेशानुसार प्रस्तुत की जाती है, तो अस्पताल और डॉक्टर अल्ट्रासाउंड या किसी आवश्यक निदान प्रक्रिया के लिए पहचान पत्र पर जोर नहीं देंगे। इस मामले में जांच अधिकारी द्वारा की गई पहचान पर्याप्त मानी जाएगी।
- जिन मामलों में गर्भधारण अवधि 24 सप्ताह से अधिक है, वहां मेडिकल बोर्ड तुरंत गठित किया जाएगा और अदालत के किसी विशेष आदेश की प्रतीक्षा किए बिना आवश्यक चिकित्सा परीक्षण कर रिपोर्ट तैयार कर उचित प्राधिकरणों को प्रस्तुत करेगा।
- गर्भपात के लिए सहमति (पीड़िता या उसके अभिभावक से, जैसा मामला हो) उनकी समझ की भाषा (जैसे हिंदी या अंग्रेज़ी) में प्राप्त की जाएगी।
- अस्पताल प्रशासन को यह निर्देश दिया गया है कि आपातकालीन और स्त्री रोग विभागों में अद्यतन एसओपी और प्रासंगिक कानूनी दिशानिर्देश उपलब्ध कराए जाएं, और ड्यूटी डॉक्टरों को नियमित रूप से एमटीपी अधिनियम, पॉक्सो अधिनियम, और उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के तहत उनकी जिम्मेदारियों के प्रति संवेदनशील और जागरूक किया जाए।
- सभी अस्पतालों में डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों और कानूनी अधिकारियों के लिए हर तीन महीने में डीएसएलएसए/डीएचसीएलएससी या किसी नामित संस्था के सहयोग से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं, ताकि वे इस तरह के मामलों को संवेदनशीलता और कुशलता से निपटाने के लिए कानूनी और प्रक्रियात्मक ज्ञान से लैस हों।
- प्रत्येक सरकारी अस्पताल में एक समर्पित नोडल अधिकारी नामित किया जाए, जो यौन उत्पीड़न की शिकार पीड़िताओं के एमटीपी और चिकित्सा-कानूनी प्रक्रियाओं के समन्वय के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित और सशक्त हो।
- सभी आपातकालीन और स्त्री रोग इकाइयों में एमटीपी अनुरोध, सहमति, अल्ट्रासाउंड अनुरोध और चिकित्सा राय के लिए मानकीकृत प्रारूप हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में विकसित और उपलब्ध कराए जाएं।
- दिल्ली पुलिस यह सुनिश्चित करेगी कि पॉक्सो और यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने वाले जांच अधिकारियों का हर छह महीने में अनिवार्य प्रशिक्षण हो, जिसमें एमटीपी प्रक्रियाओं पर विशेष ध्यान दिया जाए।