
Brown and gold gavel on brown wooden table
Child Custody: बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मुस्लिम व्यक्ति को कोई राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि धर्म कोई निर्णायक या सर्वोपरि कारक नहीं है और बच्चे का कल्याण सबसे महत्वपूर्ण है।
पक्षकार का धर्म एकमात्र विचारणीय पहलू नहीं है
न्यायमूर्ति एस वी कोतवाल और न्यायमूर्ति एस एम मोडक की खंडपीठ ने सोमवार को याचिका खारिज करते हुए कहा कि उन्हें बच्चे के कल्याण, प्रस्तावित अभिभावक के चरित्र और योग्यता पर विचार करना है और धर्म सिर्फ कई कारकों में से एक है। हाईकोर्ट ने कहा, “इस प्रकार, इस प्रकार के मामलों में अदालत के सामने पक्षकार का धर्म एकमात्र विचारणीय पहलू नहीं है। नाबालिग का धर्म एक विचारणीय पहलू अवश्य है, लेकिन यह निर्णायक या सर्वोपरि कारक नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट की निर्णयों का दिया गया हवाला
अदालत ने कहा, “हमारे विचार में, तीन वर्षीय बच्ची के लिए उसकी मां की कस्टडी में रहना उसके कल्याण के लिए उचित है। मां स्वयं के और अपनी बेटी के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त रूप से कमाती है। हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के उन निर्णयों का हवाला दिया जिनमें कहा गया है कि नाबालिग बच्ची की कस्टडी सामान्यतः मां को दी जानी चाहिए और केवल असाधारण परिस्थितियों में मां से हटाकर किसी अन्य को सौंपी जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा, “सामान्यतः जब तीन साल की बच्ची पहले से ही अपनी मां की कस्टडी में है, तो बिना किसी ठोस कारण के उसकी कस्टडी मां से नहीं छीनी जा सकती।” खंडपीठ ने कहा कि मौजूदा मामले में ऐसा कुछ भी प्रस्तुत नहीं किया गया जिससे यह साबित हो कि यदि बच्ची मां के पास रही तो उसका कोई नुकसान होगा।
तीन साल की बच्ची की कस्टडी की मांग
व्यक्ति ने हाईकोर्ट में दायर एक हैबियस कॉर्पस (व्यक्ति को न्यायालय में प्रस्तुत करने) याचिका में कहा था कि वह और उसकी पत्नी दोनों मुस्लिम हैं और मुहम्मदन लॉ के तहत पिता को बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक माना जाता है। इसलिए, तीन साल की बच्ची की कस्टडी उसे सौंपनी चाहिए, याचिका में यह दावा किया गया था। उक्त व्यक्ति ने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी ने जबरन उसकी नाबालिग बेटी को अपने कब्जे में ले लिया है।
यह किया गया याचिका में दावा
याचिका में यह भी कहा गया कि पत्नी, जो पाकिस्तान में पैदा हुई थीं लेकिन 1995 में भारतीय नागरिक बन गई थीं, वर्तमान में दिल्ली में रह रही हैं और पति को आशंका है कि वह बच्ची को लेकर देश छोड़ सकती हैं। कोर्ट ने पति की उस दलील को भी खारिज कर दिया कि उसकी पत्नी के कार्य-स्वरूप (अव्यवस्थित व्यवसाय) के कारण वह बच्ची को पर्याप्त समय नहीं दे पाएगी। कोर्ट ने कहा कि यह एक विवादास्पद तथ्य है जिसे सच मानकर मां से बच्ची की कस्टडी नहीं छीनी जा सकती।
हैबियस कॉर्पस याचिका के माध्यम से राहत न मांगने की सलाह
खंडपीठ ने कहा कि उचित उपाय यह होगा कि व्यक्ति गार्डियंस एंड वार्ड्स एक्ट के तहत उचित अदालत में जाकर अधिकारों का दावा करे, न कि हैबियस कॉर्पस याचिका के माध्यम से राहत मांगे।कोर्ट ने कहा कि यह ऐसा मामला नहीं है जिसमें वह हस्तक्षेप कर महिला को बच्ची की कस्टडी याचिकाकर्ता को सौंपने का निर्देश दे सके। खंडपीठ ने यह भी कहा कि व्यक्ति दिल्ली की अदालत में, जहां महिला ने पहले से ही कार्यवाही शुरू कर दी है, वही राहत मांग सकता है।
महिला का जन्म पाकिस्तान में हुआ, 1995 में वह भारतीय नागरिक बनी
याचिका के अनुसार, महिला का जन्म पाकिस्तान में हुआ था और 1995 में वह भारतीय नागरिक बन गई थी। हालांकि, उसने 2007 में भारतीय नागरिकता छोड़ दी और अमेरिकी नागरिक बन गई। वर्तमान में वह भारत में अमेरिकी पासपोर्ट के साथ रह रही है और पीआईओ (भारतीय मूल का व्यक्ति) कार्ड के साथ यात्रा करती थी, जो 2023 में समाप्त हो गया। व्यक्ति का दावा है कि उसकी पत्नी ने 2017 में ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया (OCI) कार्ड के लिए आवेदन किया था लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया था और उसे भारतीय वीजा के लिए आवेदन करने के लिए कहा गया था। यह मुद्दा दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है।
मानसिक उत्पीड़न के भी आरोप लगाए
व्यक्ति के वकील आबाद पोंडा ने कोर्ट को बताया कि महिला हिंदी फिल्म उद्योग में काम करती है, सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर है और अपने कार्य की प्रकृति के कारण अक्सर यात्रा करती है और भारत में उसकी कोई स्थायी जड़ें नहीं हैं। दोनों की शादी 2019 में हुई थी और 2022 में उनकी एक बेटी हुई। पोंडा ने कोर्ट को बताया कि जनवरी 2024 तक बच्ची मुंबई में रह रही थी और उसे एक स्कूल में दाखिला भी दिलाया गया था। हालांकि, वकील ने बताया कि महिला बहाना बनाकर कि वह अपने परिवार से मिलने जा रही है, बच्ची को लेकर चुपके से दिल्ली चली गई और वापस मुंबई नहीं लौटी। इसके बजाय, महिला ने पति को एक नोटिस भेजा जिसमें वैवाहिक विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान की मांग की गई और मानसिक उत्पीड़न के आरोप लगाए।