
A shopkeeper at work
Consumer News : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए जरूरी है कि उपभोक्ता मुकदमों को कई गुना बढ़ावा दिया जाए।
अधिनियम की खामियों को लेकर याचिका दायर
जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस एम. एम. सुंदरेश की बेंच ने कहा कि उपभोक्तावाद को मजबूत करना सामाजिक असमानताओं को दूर करने का सबसे प्रभावी तरीका है। कोर्ट ने उपभोक्ता मुकदमों को जनहित याचिका का एक रूप बताया, जिससे सक्रिय नागरिकता बनती है और भागीदारी वाला लोकतंत्र मजबूत होता है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के क्रियान्वयन में खामियों को लेकर दायर एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दी।
गांधीजी के विचारों का हवाला
कोर्ट ने महात्मा गांधी के उस विचार को भी दोहराया जिसमें उन्होंने कहा था, “ग्राहक हमारे परिसर में सबसे महत्वपूर्ण आगंतुक है। वह हम पर निर्भर नहीं है, हम उस पर निर्भर हैं।” कोर्ट ने कहा कि गांधीजी ने उपभोक्ता को सबसे ऊपर रखा और सत्य व धर्म के सिद्धांतों से उपभोक्तावाद की परिभाषा को नया रूप दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन में उपभोक्तावाद की भूमिका
बेंच ने कहा कि गांधीजी ने असहयोग और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों के जरिए उपभोक्तावाद की भावना को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल किया। 1930 का दांडी मार्च इसका उदाहरण है, जहां नमक पर कर के विरोध के जरिए नागरिक-उपभोक्ता आंदोलन को मजबूती दी गई।
उपभोक्तावाद का व्यापक असर
कोर्ट ने कहा कि उपभोक्तावाद को समझने के लिए पब्लिक और प्राइवेट के बीच की रेखा से ऊपर उठना होगा। यह राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाजशास्त्र और पर्यावरण जैसे विषयों से जुड़ा हुआ है। इन पहलुओं से उपभोक्तावाद को देखने पर ही इसके असली प्रभाव को समझा जा सकता है।
अन्यायपूर्ण वर्गीकरण पर संविधान का अनुच्छेद 14 लागू
कोर्ट ने कहा कि अगर समाज का कोई वर्ग ही वस्तुओं का उपभोग कर पा रहा है और बाकी बहुसंख्यक वर्ग इससे वंचित है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन है। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी उपभोक्ता को उसके हक से वंचित किया जाता है, तो यह असमानता है और इसे दूर करना जरूरी है। खासकर भारत जैसे विकासशील लोकतंत्र में, जहां युवा आबादी बहुसंख्यक है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करना संविधान के मूल अधिकारों का अपमान है।
कोर्ट ने कहा
“उपभोक्ता मुकदमे जनहित याचिका का ही एक रूप हैं, जो नागरिकों को सक्रिय बनाते हैं और भागीदारी वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देते हैं। देश के शासन में भागीदारी का सिद्धांत सिर्फ संवैधानिक अधिकार नहीं, बल्कि मानव अधिकार भी है। इसलिए जरूरी है कि उपभोक्ता मुकदमों को कई गुना बढ़ने दिया जाए।”