
Supreme Court
SC news: सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की उन धाराओं की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जो जिलास्तरीय, राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय आयोगों की वित्तीय अधिकार-सीमा (pecuniary jurisdiction) को वस्तुओं और सेवाओं के लिए दी गई राशि के आधार पर निर्धारित करती हैं।
अधिनियम की कई धाराओं की चुनौती देनेवाली याचिका खारिज
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिंह और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अधिनियम की धाराओं 34(1), 47(1)(a)(i) और 58(1)(a)(i) को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए कहा कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं करते और न ही ये मनमाने हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत वित्तीय अधिकार-सीमा यह तय करती है कि उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के कौन से मंच (जिला, राज्य या राष्ट्रीय) किस मूल्य वर्ग के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं।
धाराएं अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करते: शीर्ष कोर्ट
पीठ ने कहा, हम 2019 अधिनियम की धाराओं 34, 47 और 58 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हैं और यह घोषित करते हैं कि ये प्रावधान संविधान के अनुरूप हैं और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करते। अदालत ने यह भी कहा कि केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण को अधिनियम की धाराओं 3, 5, 10, 18 से 22 के तहत अपनी वैधानिक जिम्मेदारियों का पालन करते हुए ऐसे सर्वेक्षण और समीक्षा करने होंगे और सरकार को प्रभावी और दक्ष शिकायत निवारण के लिए आवश्यक सुझाव देने होंगे। यह आदेश उन याचिकाओं पर पारित किया गया जिनमें याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था कि इस अधिनियम के कारण उन्हें वित्तीय सीमा के तहत जिला आयोग में जाना पड़ा, जबकि पूर्ववर्ती कानून के अनुसार वे राष्ट्रीय आयोग में शिकायत दर्ज करा सकते थे।
संसद को वैधानिक शक्ति प्राप्त है: अदालत
पीठ ने संसद की वित्तीय अधिकार-सीमा निर्धारित करने की शक्ति का जिक्र करते हुए कहा कि संसद को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 बनाने की वैधानिक शक्ति प्राप्त है। पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत सूची I की प्रविष्टि 95 और सूची III की प्रविष्टि 11-A और 46 को पढ़ते हुए संसद को यह अधिकार प्राप्त है। अदालत ने कहा कि यह वर्गीकरण उस उद्देश्य से सीधा संबंध रखता है जिसे यह व्यवस्था हासिल करना चाहती है।
न्यायिक उपायों की उपलब्धता में कोई कमी आई है, यह गलतफहमी
फैसले में कहा गया, वस्तुओं और सेवाओं के लिए भुगतान की गई राशि क्षतिपूर्ति के अनुमान से अधिक संबंधित होती है, बजाय उपभोक्ता द्वारा स्वयं निर्धारित किए गए हर्जाने के दावे के। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि यह एक गलतफहमी है कि इससे न्यायिक उपायों की उपलब्धता में कोई कमी आई है। “उपभोक्ता द्वारा मांगी जाने वाली राहत या क्षतिपूर्ति अप्रतिबंधित बनी हुई है, और साथ ही राज्य या राष्ट्रीय आयोग तक पहुंच भी पूरी तरह से छीनी नहीं गई है। उपभोक्ता को मनमाने रूप से असीमित क्षतिपूर्ति का दावा करने और अपनी पसंद का मंच चुनने का कोई विशेषाधिकार नहीं है। न्यायालय ने निष्कर्ष में कहा, हम मानते हैं कि क्षतिपूर्ति के लिए कोई असीमित दावा नहीं हो सकता और यह न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाता है। साथ ही हम यह भी मानते हैं कि मूल्य आधारित वर्गीकरण, न्यायिक उपायों की सीढ़ीनुमा संरचना को सृजित करने के उद्देश्य से प्रत्यक्ष संबंध रखता है।
न्यायमूर्ति नरसिंह ने पीठ की ओर से फैसला में कहा
न्यायालयों की अधिकारिता और शक्तियों को निर्धारित करने के लिए संसद को वैधानिक शक्ति प्राप्त है, और इसमें न्यायालयों और अधिकरणों की वित्तीय अधिकार-सीमा निर्धारित करना भी शामिल है। अधिनियम के प्रावधानों को भेदभावपूर्ण बताने के तर्क पर अदालत ने कहा कि मूल्य के आधार पर वर्गीकरण, यानी जिस राशि का भुगतान किया गया है, वह वैध है।
पीठ ने कहा
विचार (Consideration) किसी भी अनुबंध के गठन का अभिन्न हिस्सा है और उपभोक्ता की परिभाषा का भी अहम घटक है। इसलिए, जिला, राज्य या राष्ट्रीय आयोग को विचार के मूल्य के आधार पर अधिकार देना न तो अवैध है और न ही भेदभावपूर्ण।