
MBBS Student in a rural Area...AI IMAGE
SC News: सुप्रीम कोर्ट ने उन राज्यों पर कड़ी आपत्ति जताई, जो ऑल इंडिया कोटा के तहत एमबीबीएस करने वाले छात्रों पर यह शर्त लगा रहे हैं कि उन्हें अपनी मेडिकल पढ़ाई पूरी करने के बाद दूरदराज के क्षेत्रों में सेवा करनी होगी। अदालत ने इस शर्त को बंधुआ मजदूरी के समान बताया।
उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले पर सुनवाई
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें 2009 की राज्य नीति को बरकरार रखा गया था। इस नीति के तहत, ऑल इंडिया कोटा के तहत उत्तराखंड के मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले छात्रों को एक बांड पर हस्ताक्षर करना होता था, जिसके अनुसार उन्हें अगम्य और अत्यंत अगम्य क्षेत्रों में पांच साल तक सेवा करनी होगी। इसके बदले में उन्हें सब्सिडी वाली फीस पर मेडिकल शिक्षा दी जाती थी। पीठ ने कहा, ऑल इंडिया कोटा के तहत चयनित छात्र राज्य कोटे के छात्रों की तुलना में अधिक मेधावी होते हैं। इन प्रतिभाशाली और मेधावी छात्रों को बंधुआ मजदूर की तरह कैसे ट्रीट किया जा सकता है?”
उत्तराखंड सरकार ने अदालत में दलील दी
उत्तराखंड सरकार ने अदालत में दलील दी कि यह बांड स्वैच्छिक है। जो छात्र इसे स्वीकार करते हैं, उन्हें सब्सिडी वाली फीस पर मेडिकल शिक्षा दी जाती है, जबकि जो छात्र इस बांड को स्वीकार नहीं करते, उनसे अधिक फीस वसूली जाती है। राज्य के वकील ने कहा कि जो छात्र पांच साल तक राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों में सेवा करने का बांड भरते हैं, वे यदि चाहें तो ₹30 लाख जमा करके इस शर्त से मुक्त हो सकते हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की इस नीति की आलोचना करते हुए कहा, “राज्य सरकारें ऑल इंडिया कोटा के छात्रों पर ऐसी शर्तें नहीं थोप सकतीं और न ही उन्हें ग्रामीण इलाकों में सेवा के लिए बाध्य करने के लिए लाखों रुपये का दंड लगा सकती हैं। यह बंधुआ मजदूरी के समान है।
सुप्रीम कोर्ट ने शर्त को लेकर जताई चिंता
केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील ने कहा कि कई राज्य ऐसी शर्तें इसलिए लगाते हैं ताकि दूरस्थ क्षेत्रों में डॉक्टरों की उपलब्धता बनी रहे, क्योंकि अन्यथा वहां कोई भी काम करने के लिए तैयार नहीं होता। इस पर न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, “एक छात्र किसी ऐसे राज्य में सेवा कैसे करेगा, जहां का वह मूल निवासी नहीं है, विशेष रूप से दूरस्थ इलाकों में?” उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, “मान लीजिए कि तमिलनाडु का एक प्रतिभाशाली छात्र ऑल इंडिया कोटा के तहत उत्तराखंड के किसी कॉलेज में प्रवेश लेता है। उसे अत्यंत अगम्य इलाकों में सेवा करने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां की भाषा और संस्कृति से वह पूरी तरह अनजान है। एक मरीज अपनी समस्या डॉक्टर को नहीं समझा पाएगा, और डॉक्टर, चाहे वह कितना भी अच्छा क्यों न हो, मरीज का सही इलाज नहीं कर सकेगा। तो फिर यह व्यवस्था कैसे चलेगी?”
शीर्ष कोर्ट ने मेडिकल कॉलेज के छात्रों को दी राहत
सुप्रीम कोर्ट उन छात्रों की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जो 2011 में उत्तराखंड के गढ़वाल के एक मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिए थे। उन्होंने हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उनसे अधिक फीस लेने और 18% ब्याज के साथ भुगतान करने के लिए कहा गया था, क्योंकि उन्होंने बांड पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। सुप्रीम कोर्ट ने छात्रों को राहत देते हुए ब्याज की दर 18% से घटाकर 9% कर दी और चार सप्ताह का समय दिया। कोर्ट ने कहा, याचिकाकर्ता छात्र ऑल इंडिया परीक्षा में मेरिट के आधार पर चयनित हुए थे। भले ही उन्होंने बांड भरने में गलती की हो, फिर भी बांड में यह विकल्प दिया गया था कि वे ₹15,000 सालाना देकर पढ़ाई कर सकते हैं या ₹2.20 लाख सालाना फीस भर सकते हैं। पीठ ने कहा कि चूंकि छात्रों ने फीस देर से भरी है, इसलिए वे राज्य सरकार को कुछ ब्याज देने के लिए बाध्य हैं। सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, हम यह उपयुक्त समझते हैं कि ब्याज की दर को 18% से घटाकर 9% कर दिया जाए।